वाकाटक वंश
( हिंदी इतिहास )
भाग ३
प्रवरसेन द्वितीय के बाद नरेन्द्र सेन ने 440 ई. से 460 ई. तक शासन किया।
पृथ्वीसेन द्वितीय वाकाटक वंश की मुख्य शाखा का अन्तिम शासक हुआ। उसे 'वाकाटक वंश के खोये हुए भाग्य का निर्माता' कहा जाता है। पृथ्वीसेन द्वितीय ने अपनी राजधानी पद्मपुर में बनायी। इस वंश के लेख यह बतलाते हैं कि द्वितीय प्रवरसेन से द्वितीय पृथ्वीषेण तक किसी प्रकार का रण अभियान न हो सका।
वाकाटकों की वत्सगुल्मा (या अमुख्य) शाखा का संस्थापक सर्वसेन था जो प्रवरसेन प्रथम का पुत्र था। सर्वसेन ने वत्सगुल्मा को अपनी राजधानी बनाकर "धर्ममहाराज" की उपाधि धारण की थी। सर्वसेन को प्राकृत ग्रंथ 'हरिविजय' एवं 'गाथासप्तशती' के कुछ अंशों का लेखक माना जाता है। सर्वसेन के उत्तराधिकारी विंध्यसेन द्वितीय ने "विंध्यशक्ति" एवं "धर्ममहाराज" की उपाधि धारण की थी।
पाँचवी सदी के अन्त में राजसत्ता वेणीमशाखा (सर्वसेन के वंशज) के शासक हरिषेण के हाथ में गई, जिसे अजन्ता लेख में कुन्तल, अवन्ति, लाट, कोशल, कलिंग तथा आंध्र देशों का विजेता कहा गया है (इंडियन कल्चर, भाग ७, पृष्ठ ३७२)। हरिषेण के शासनकाल में वाकाटक साम्राज्य अपने चरमोत्कर्ष पर था किन्तु उसके उत्तराधिकारियों की निर्बलता के कारण कलचुरि वंश ने वाकाटक वंश का अन्त कर दिया।
अजन्ता गुफाओं में शैल को काटकर निर्मित बौद्ध बिहार एवं चैत्य वाकाटक साम्राज्य के वत्सगुल्म शाखा के राजाओं के संरक्षण में बने थे।
अभिलेखों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि दक्षिण भारत में वाकाटक राज्य वैभवशाली, सबल तथा गौरवपूर्ण रहा है। सांस्कृतिक उत्थान में भी इस वंश ने हाथ बटाया था। प्राकृत काव्यों में "सेतुबन्ध" तथा "हरिविजय काव्य" क्रमशः प्रवरसेन द्वितीय और सर्वसेन की रचना माने जाते हैं। सेतुबन्ध को 'रावणवहो' भी कहा जाता है। वैसे प्राकृत काव्य तथा सुभाषित को "वैदर्भी शैली" का नाम दिया गया है। वाकाटकनरेश वैदिक धर्म के अनुयायी थे, इसीलिए अनेक यज्ञों का विवरण लेखों में मिलता है। कला के क्षेत्र में भी इसका कार्य प्रशंसनीय रहा है। अजंता की चित्रकला को वाकाटक काल में अधिक प्रोत्साहन मिला, जो संसार में अद्वितीय भित्तिचित्र माना गया है। नाचना का मंदिर भी इसी युग में निर्मित हुआ और उसी वास्तुकला का अनुकरण कर उदयगिरि, देवगढ़ एवं अजंता में गुहानिर्माण हुआ था। समस्त विषयों के अनुशीलन से पता चलता है कि वाकाटक नरेशों ने राज्य की अपेक्षा सांस्कृतिक उत्थान में विशेष अनुराग प्रदर्शित किया। यही इस वंश की विशेषता है।
वाकाटक वंश के अधिकांश शासक शैव धर्म के अनुयायी थे किन्तु रुद्रसेन द्वितीय वैष्णव धर्म का अनुयायी था।
अजन्ता गुफाओं में शैल को काटकर निर्मित बौद्ध बिहार एवं चैत्य वाकाटक साम्राज्य के वत्सगुल्म शाखा के राजाओं के संरक्षण में बने थे।
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