बड़वानी महाराजा ने अपनी सीमा में, सेंधवा किले पर मराठा सेना की अगवानी की और भोजन कराया। दूसरा पड़ाव खलघाट पर हुआ। यहाँ से ठीकरी-नालछा मार्ग से मांडू पहुँचकर पड़ाव डाला। तीन दिन के प्रयास में ही नंदलाल जमींदार और मल्हारराव के सैनिक नावक (लोहे के धनुष) के तीर से बिलाई (कुएँ में डूबे बर्तन निकालने का लोहे का यंत्र) गढ़ की दीवारों के कंगूरों में फँसा किले में प्रवेश कर गये और दिल्ली दरवाजे पर तैनात सैनिकों को मार, द्वार खोल दिया। दिनभर मुगल सैनिकों को ढूँढ-ढूँढकर मारा गया। मांडव विजय के समाचार सारे निमाड़ में फैल गये। निमाड का एक ग्रामीण ब्राह्मण युवक मांडव में बालाजी पेशवा की सेवा में हाजिर हुआ और जुहार (प्रणाम) अर्ज कर खड़ा हो गया।" "क्या चाहते हो ब्राह्मण?
"पेशवा हुजूर! मैं मांडव के राम मंदिर के पुजारी परिवार से हूँ। पाँच सौ बरस पूर्व मुस्लिम बादशहा, सुलतानोने ने गढ़ के सारे मंदिर तोड़ दिये थे। जब वे गढ़ में प्रवेश कर रहे थे तब मेरे पूर्वजों ने मंदिर की सारी मूर्तियाँ एक वृक्ष की छाँव में गड्ढा खोदकर गाड़ दी थी। मेरे परिवार के पास बीस पीढ़ियों से एक ताम्रपत्र सुरक्षित रखा है वह मैं साथ में लाया हूँ, स्वयं पढ़ लीजिये। मुगलोने ने मंदिर तोड़कर मस्जिद बना दी है, उसी के सामने एक पुराने पेड़ के नीचे मूर्तियाँ गड़ी हैं। मेरी प्रार्थना है हिन्दुओं के मुक्तिदाता मंदिर का उद्धार करें।"
पेशवा के आदेश से मस्जिद तोड़ दी गई। पेड़ के नीचे से सभी मूर्तियाँ सुरक्षित निकली, जिन्हें मंदिर में पधरा दिया गया। पेशवा का विश्राम स्थल कि नीलकंठेश्वर पर था, मंदिर को तोड़कर मुगलोने ने उसे ऐशगाह बना लिया चट था। गर्मियों में भी यह स्थान अत्यंत ठंडा रहता है और झरने से शुद्ध पानी वक निरंतर झरता रहता है। मल्हारराव ने ऐशगाह में पुनः लग नीलकंठेश्वर महादेव की स्थापना कर डाली।
यहाँ से
मराठा सेना देपालपुर की ओर कूच कर गई। मल्हारराव तथा नंदलाल जमींदार के पंद्रह सौ घुड़सवार हरावल दस्ता (अग्रगामी सेना) बने हुए थे। वे एक ही दिन में घोड़े दौड़ाते देपालपुर पहुँच गये। देपालपुर के पास एक बड़े तालाब के किनारे एक मस्जिद खड़ी थी और बनेड़िया नामक मुसलमानों का गाँव बसा था। मल्हारराव के पास देपालपुर के जैन समाज का एक शिष्टमंडल आया और निवेदन किया कि- साठ वर्ष पूर्व औरंगजेब और उसके भाई मुराद की सेनाएँ देपालपुर आई थीं और मंदिर तोड़ दिया था। एक दिन पहले ही जैन समाज के लोगों ने तालाब की पाल पर मूर्तियां गाड़ दी थीं। आज भी अस्सी साल के बूढ़े जीवित हैं जिन्होंने मंदिर टूटते देखा है, वे मूर्तियाँ गड़े होने का स्थान भी बता देंगे। मल्हारराव ने बताये स्थान से जैन मूर्तियाँ निकलवाईं और औरंगजेब द्वारा मंदिर तोड़कर बनाई मस्जिद में ही उन्हें स्थापित कर दिया। उज्जैन पहुँचने की जल्दी में मस्जिद तोड़कर मंदिर बनाने का समय ही नहीं था। तालाब की पाल पर मेला लग गया। दूर-दूर से जैन समाज और हिन्दू समाज के लोग इकट्ठा हो गये। तब से यह जैन मंदिर अतिशय क्षेत्र कहलाने लगा और प्रतिवर्ष इसी दिन बनेड़ियाजी का मेला लगने लगा। जब पेशवा बालाजी देपालपुर आये तो मल्हारराव के घोड़े उज्जैन की ओर दौड़ पडे।
उज्जैन में मराठों की विशाल सेना आने के समाचारों से उज्जैन में
भगदड़ मच गई थी। मुसलमानों सारा नगर खाली कर दिया था। मल्हारराव ने नागरिकों से पूछा- "यहाँ महाकालेश्वर का ज्योर्तिलिंग मंदिर कहाँ है।" लोगों ने बताया- मुस्लिम बस्ती के छोर पर जो विशाल मस्जिद परिसर है, कभी वह महाकाल मंदिर हुआ करता था। पेशवा बालाजी जब सेना सहित उज्जैन पधारे तो उनका पड़ाव क्षिप्रा किनारे चक्रतीर्थ मैदान में पड़ा। मल्हारराव, पेशवा बालाजी के सामने जुहार अर्ज कर खड़े हो गये- "मैं बड़वानी के राजा मोहनसिंह की सेना के साथ हरावल में चल रहा हूँ। आपने मार्ग के अपवित्र किये गये मंदिरों का उद्धार किया है, हुजूर! मेरी प्रार्थना है कि तीन बार तोड़े गये महाकाल मंदिर का भी उद्धार करें। अभी साठ वर्ष पूर्व धर्माट युद्ध में हिन्दुओं के कत्लेआम के बाद औरंगजेब ने तीसरी बार मंदिर तोड़ा है।"
सुनते ही पेशवा बालाजी ने मस्जिद हटाकर महाकाल मंदिर के पुनः निर्माण की घोषणा कर दी। फिर क्या था... उज्जैन की हिन्दू प्रजा कुदाल, फावड़े, घन, सब्बल लेकर मस्जिद पर पिल पड़ी और मंदिर का पुनः निर्माण होने लगा। महाकाल मंदिर के पुनः निर्माण का समाचार सारे भारत में फैल गया। दूर-दूर से प्रजा और हिन्दू राजे-रजवाड़े उज्जैन की ओर उमड़ पड़े। जोधपुर के अजीतसिंह, आमेर (जयपुर) के जयसिंह, मेवाड़ के संग्रामसिंह भी अपनी सेनाएँ लेकर मराठों की भारत मुक्ति सेना में शामिल होने चले आये। बालाजी पचास हजार सेना लेकर पूना से चले थे, उज्जैन में मालवा, राजस्थान, गुजरात, बुंदेलखंड से आये राजे-रजवाड़ों की सेना मिलकर एक लाख हो गई।
No comments:
Post a Comment