औरंगजेबाचा त्याच्या अंतिम क्षणांच्या वेळी त्याची मुलगी झीनतउन्निसाशी झालेला संवाद ...
"एक शैतान की रुह भी का उठे, ऐसी दर्दनाक मौत हमने संभा को दी । हमे लगा ; सब मरहट्टे डर के मारे अपने घुटने टेक देंगे । मगर नही , संभा की मौत का असर उलटा ही हो गया। राजाराम के साथ संता और धना और उनकी आवाम भी इस जंग में शामिल हो गई । राजाराम मर गया तब उसकी बीवी ताराबाई हमारे खिलाफ समशेर ताने खडी हो गयी । यह ताराबाई कोण है पता है शहजादी ?"
"नहीं अब्बाजान ।"
औरंगजेब कुत्सित हसत म्हणाला ,
"सिवा के सिपहसालार हंबीरराव की बेटी। मामुली सरदार की बेटी को हमसे लडने की हिम्मत कैसे होती है ? हम खुद पुरे हिंदुस्तान का मुकद्दर अपने हाथो से लिखते है । हम खुद मुकद्दर हैं । अपने खुद के मुकद्दर से लडने की इनकी जुर्रत कैसे होती है ? हमारे शहजादे ,सीपहसालार ,बडी बडी तोपें, हाथी, उंट, राजपूत , बुंदेले , पठाण ,अफगाण ,तुर्क , एक से एक नामचीन गाझी ; इतनी बडी ताकत के खिलाफ लडने की हिम्मत इन मराठो में आती कहाॅं से है ? कहाॅं से आता है बादशाह को ललकारने का हुनर , वो भी तब , जब एक बेवा औरत उनकी तख्त पर बैठी हो । सिवाने एक मामुली सरदार की बेटी के साथ अपने लडके की शादी की, और हम अपनी सगी बेटी की शादी नही कर पाए, इसका हमे बहुत अफसोस है । हमारी जिद की वजह से आपको इस जहान्नम में ताउम्र का काम करना पडा , इसका भी हमें बडा अफसोस है । खुदा हमे कभी माफ नहीं करेगा । हमे माफ करना शहजादी , हमे माफ करना ।"
म्हाताऱ्या औरंगजेबाची डोळे भरुन आले होते. आवाज घोगरा झाला. काही क्षण रडवेला औरंगजेब अचानक निश्चयी स्वरात बोलू लागला ,
"जिस संभा ने हमे नौ साल तक फतेह नहीं हसिल होने दी , कभी हमें ताजिम नहीं दी,उसी काफर संभा के लडके को हमें सॅंभालना पड रहा है ।राजाराम के खिलाफ हम उसका प्यादा खडा करने का मनसुबा बना रहे थे । लेकिन इन मराठों की वफादारी किसी एक बादशाह के लिये नहीं बल्की सिवाने रायगड पर बिठाए तख्त के लिये है , यह बात अब हम बिल्कुल समझ गये हैं । लेकिन दुश्मन का बच्चा अपने शहजादे की तरह पालना इससे बडी गमजदा बात क्या हो सकती हैं ? नौ साल तक संभा ने हमें फतेह का मूॅंह तक नहीं देखने दिया । हमने गुस्से में आकर मुगलिया सल्तनत के बादशहा का किमाॅंश फेक दिया , फिर भी हमारे सिपाही मराठों से लडने की हिम्मत नहीं जुटा पाए । ग्यारहा साल तक राजाराम, संता और धना ने हमारी फौज की ऐसी हालत की, की दुश्मन को भी ऐसे शैतान ना मिले । अब यह राजाराम की औरत तो राजाराम से भी खतरनाक निकली । छह साल तक इन पहाडों में मुघल सल्तनत का बादशहा आलमगीर किसी बेबस हारे इन्सान की तरह घुमता रहा । कोई सरफिरा पागल ही ऐसा सफर चुन सकता है ।"
"हमारी जिंदगी की सबसे बडी गलती यह है की हमनें सिवा को आग्रा से भागने दिया । इस्लाम में पुनर्जन्म नहीं मानते, पर फिर भी कभी खुदा के करम से हम वापीस इन्सान की जात में पैदा हुए तो हम इन पहाडों से और मराठो से लडने नहीं आऐंगे ,कभी नहीं....."
पुस्तकाचे नाव :- मुकद्दर : कथा औरंगजेबाची
लेखक :- स्व.श्री.स्वप्निल रामदास कोलते..
एक वेळा वाचवच असे पुस्तक !!!
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